श्री दुर्गा सप्तशती में अर्गला स्तोत्र का पाठ दुर्गा कवच के पश्चात और कीलक स्तोत्र से पहले करने का विधान है। यह अर्गला स्तोत्र अत्यंत शुभकारक और लाभप्रद है।
अर्गला स्तोत्र का पाठ नवरात्रि के आलावा देवी पूजन या फिर सप्तशती पाठ के साथ भी किया जाता है। जो मनुष्य अर्गला स्तोत्र का पाठ कर महास्तोत्र [ कीलक ] का पाठ करता है,उस मनुष्य को सप्तशती की जप संख्या से प्राप्त होनेवाले श्रेष्ठ फल का लाभ प्राप्त होता है।
।। नवार्णमन्त्र ।।
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे
इसका अर्थ है : - चित्स्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सदरूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनंदरूपिणी महाकाली ! महाविद्या प्राप्त करने के लिए हम सब तुम्हारा ध्यान करते हैं। देवत्रय स्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हे नमस्कार है।अविद्या रूप रस्सी की मजबूत गांठों से खोल तुम मुझे मुक्त कर दो।
।। विनियोग ।।
अस्यश्री अर्गला स्तोत्र मंत्रस्य विष्णुः ऋषिः। अनुष्टप्छन्दः। श्री महालक्षीर्देवता। मन्त्रोदिता देव्योबीजं। नवार्णोमन्त्र शक्तिः। श्री सप्तशती पठां गत्वेन जपे विनियोगः।
श्री अर्गला स्तोत्र
ॐ नमश्चण्डिकाये
ॐ जयन्ती,मंगला,काली,भद्रकाली,कपालिनी,दुर्गा,शमा,क्षमा,शिवा,धात्री,
स्वाहा,स्वधाआदि मूर्तिमय देवियो ! तुम्हे मेरा नमस्कार है। प्राणिमात्र का
कष्ट हरण करने वाली हे चामुण्डे ! तुम्हारी जय हो। हे कालरात्रि ! हे मधु -
कैटभ मर्दिनी! श्री ब्रम्हाजी को वरदान देने वाली तुम्हे नमस्कार है। हे देवी !
मुझको रूप दो,जय दो,यश दो और दुश्मनों का संहार करो। हे महिषासुर
मर्दिनी ! भक्तों को सुख देने वाली ! तुम्हे नमस्कार है। हे भगवती ! तुम मुझे
सुन्दर स्वरुप,जय,यश दो और दुश्मनों का संहार करो। रक्तबीज दैत्य का
वध तथा चण्ड-मुण्ड का विनाश करनेवाली माँ ! तुम्हे नमस्कार है। मुझको
रूप,जय,यश दो और शत्रुओं का संहार करो। हे शुम्भ - निशुम्भ तथा धूम्राक्ष
नामक दत्यों का मर्दन करनेवाली ! तुम्हे नमस्कार है। मुझकोरूप,जय,यश
दो और शत्रुओं का संहार करो। हे पूजित युगल चरणों वाली देवी ! हे समस्त
सौभाग्य देने वाली देवी ! मुझको रूप,जय,यश दो और शत्रुओं का संहार
करो। हे चिन्तनीय रूप और चित्र वाली देवी ! हे सम्पूर्ण सौभाग्य प्रदान
करने वाली देवी ! मुझे रूप,जय,यश दोऔर काम क्रोधादि शत्रुओं का नाश
करो। हे दुःख नाशक चण्डिके ! भक्ति से सदैव नमस्कार करने वालों को
रूप,जय,यश दो और दुश्मनों का संहार करो।चण्डिके ! रोग नाशिनी ! इस
जगत में भक्ति सहित जो तुम्हारी स्तुति करते है,उन भक्तों को रुप,जय,यश
दो तथा शत्रुओं का नाश करो।चण्डिके ! जो भक्ति सहित तुम्हारी निरंतर
पूजा करते है उनको रूप,जय यश दो तथा उनके शत्रुओं का संहार करो।हे
देवी ! मेरे लिए सौभाग्यऔरआरोग्यता तथा परम सुख दीजिए और रूप,
जय,यश दो तथा दुश्मनो का संहार करो। हे भगवती ! मेरे बैरियों को नष्ट
कर मुझे बलवान करो,रूप,जय,यश दो और दुश्मनो का संहार करो। हे
देवी ! मेरा कल्याण करो और परम संपत्ति दो तथा मुझे रूप,जय,यश दो
और दुश्मनों का संहार करो। देवता और राक्षसों के मुकुट रत्नो से स्पर्श
किये हुए चरण वाली ! मुझे रूप,जय,यश दो और शत्रुओं का संहार करो।
हे देवी ! मुझे तथा अपने भक्त जनों को विद्यावान,लक्ष्मीवान बनाओ तथा
रूप,जय,यश दो और शत्रुओं का संहार करो। हे चण्डिके ! प्रचण्ड दैत्यों के
गर्व को नष्ट करो,मुझ शरणागत को रूप, जय,यश दो और शत्रुओं का
संहार करो। हे चार भुजाओं वाली ! ब्रम्हाजी द्वारा प्रशंसित परमेश्वरि मुझे
रूप,जय, यश दो और शत्रुओं का संहार करो। निरंतर श्री विष्णु भगवान् से
स्तुत की गई हे अम्बिके ! रूप, जय,यश दो और शत्रुओं का संहार करो। हे
हिमाचल सुता पार्वती के पति [ श्री शंकरजी ] द्वारा पूजित परमेश्वरि ! मुझे
रूप, जय,यश दो और शत्रुओं का संहार करो। शचीपति इंद्र के सदभाव से
पूजित हे परमेश्वरि ! मुझे रूप,जय,यश दो और शत्रुओं का संहार करो। हे
देवी ! हे प्रचण्ड भुज दण्डों से दुष्टों के दर्प को नष्ट करनेवाली!रूप,जय,यश
दो और दुश्मनों का संहार करो। हे देवी ! भक्तजनों को अत्यधिक दिए हुए
परमानन्द को उदय करने वाली जगदम्बिके ! मन की इच्छानुसार चलने
वाली श्रेष्ठ कुलोत्पन्न स्वरुप वाली पत्नी दो। जो मनुष्य इस स्तोत्र को पढ़कर
महास्तोत्र [ किलक ] का पाठ करता है वह पुरुष सप्तशती की जप संख्या
से प्राप्त होने वाले श्रेष्ठ फल का भागी होता है।
।। इति देव्याः अर्गला स्तोत्र सम्पूर्णम ।।
ॐ नमश्चण्डिकाये
ॐ महर्षि मार्कण्डेय बोले -- निर्मल ज्ञानरूपी शरीर धारण करने वाले,
देवत्रयी,दिव्य तीन नेत्रों वाले,जो कल्याण प्राप्ति के हेतु है तथाअपने मस्तिष्क
परअर्धचन्द्र धारण करने वाले हैं, उन भगवान् शंकर को नमस्कार है। जो
मनुष्य इन कीलक मन्त्रों को जपकर इससे ही देवी की स्तुति करता है,
उसको इससे ही देवी की सिद्धि हो जाती है। उन्हें अपने कार्य की सिद्धि के
लिए दूसरे की साधना करने की आवश्यकता नहीं रहती। बिना जप के ही
उनके उच्चाटन आदि सभी कार्य सिद्ध हो जाते है।
लोगों के मन में शंका थी कि केवल सप्तशती की उपासना से अथवा
सप्तशती को छोड़कर अन्य मन्त्रों की उपासना से भी सामान रूप से सब
कार्य सिद्ध हो जाते हैं तब इनमे कौन सा साधन श्रेष्ठ है। लोगों की इस शंका
को ध्यान में रखकर श्री शंकरजी ने इस चण्डिका स्तोत्र को गुप्त कर दिया।
इस स्तोत्र के पाठ द्वारा उत्पन्न पुण्य कभी समाप्त नहीं होता। साधक सभी
प्रकार क्षेम प्राप्त कर लेता है, इसमें कोई संशय नहीं।
जो पुरुष सावधान होकर कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी या अष्टमी को
भगवती की सेवा में सर्वस्व समर्पित कर देता है और फिर उसे प्रसाद रूप में
ग्रहण करता है उसी से दुर्गा देवी प्रसन्न होती है,अन्यथा नहीं। इस प्रकार श्री
शंकरजी ने सिद्धि रोकने के लिए कीलित किया है।इसलिए इसकानिष्कीलन
करके जो नित्य जपता है वह सिद्धगण या गंधर्व होता है। उस व्यक्ति को
कहीं भी घूमने में भय नहीं होता, न अकाल मृत्यु ही होती है। मृत्यु के पश्चात
वह मोक्ष को प्राप्त करता है। इसलिए इसकी पूर्ण विधि को समझकरके पाठ
प्रारम्भ करें, बिना समझे पाठ करने से विनाश होता है। अतः किसी विद्वान से
इस स्तोत्र की सम्पूर्ण विधि को जानकर प्रारम्भ करें।विद्वान जन समस्त विधि
को जानकर ही पाठ प्रारम्भ करते हैं।
स्त्रियों में जो सौभाग्य आदि दिखाई देते हैं वे सब श्री देवी की कृपा
प्रसाद से ही हैं। अतः यह जप सदा करने योग्य है। जो पुरुष इस स्तोत्र का
धीरे - धीरे मंद स्वर में पाठ करते हैं, उनको थोड़ा फल मिलता है। उच्च स्वर
में अधिक फल मिलता है एवं सभी सिद्धियां प्राप्त होती है, इसलिए इसका
पाठ उत्साह से और उच्च स्वर में करना चाहिए। इसके प्रसार से ऐश्वर्य,
सौभाग्य, आरोग्य,सम्पदा, शत्रु नाश तथा उत्तम मोक्ष प्राप्त होता है,अतः ऐसी
जगत जननी माता की स्तुति अवश्य करनी चाहिए।
।।इति देव्याः कीलक स्तोत्रम सम्पूर्णम।।
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