माता ज्ञान की देवी सरस्वती माता |
माँ सरसस्वती देवी पौराणिक देवियों में से एक है। श्रद्धालु माँ सरस्वती को ब्रम्हाणी, दुर्गा, गायत्री, शक्ति, वागेश्वरी, वाणीश्वरी, बुद्धिदात्री, सिद्धिदात्री, आदि पराशक्ति, जगजननी, भारती, शारदा, भगवती सावित्री, ब्रह्मचारिणी, वरदायिनी, चंद्रघंटा, भुवनेश्वरी ऐसे अनेक अनगिनत नामों से जानते है।
सनातन धर्म शास्त्रों में दो सरस्वती का वर्णन देखने में मिलता है। एक ब्रम्हा की पत्नी सरस्वती एवं एक ब्रम्हा पुत्री तथा विष्णु की पत्नी सरस्वती। ब्रम्हा पत्नी सरस्वती मूल प्रकृति से उत्पन्न सतोगुण महाशक्ति प्रमुख त्रिदेवियों में से एक है। जबकि विष्णुजी की पत्नी सरस्वती ब्रम्हा के जिव्हा से प्रकट होने के कारण ब्रम्हा की पुत्री मानी जाती है। धर्म शास्त्रों के अनुसार दोनों देवियां ही सामान नाम स्वरुप, प्रकृति शक्ति एवं ब्रम्हज्ञान विद्या की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती है।
माता सरस्वती की आराधना विशेषकर बसंत पंचमी के दिन की जाती है। इस दिन पाठशालाओं, घरों और मंदिरों में पूजा अर्चना की जाती है।
श्री सरस्वती माता का स्वरुप : -
- विष्णु पुराण के अनुसार माँ सरस्वती का वाग्देवी स्वरुप चार भुजाओं से युक्त और आभूषणों से सुसज्जित बताया गया है। माँ का स्वरुप सौम्य और वर्ण श्वेत है।
- ब्राम्हण ग्रंथों के अनुसार माँ सरस्वती ब्रम्हस्वरूपा, कामधेनु और समस्त डिवॉन की प्रतिनिधि है, जो विद्या, बुद्धि और ज्ञान की देवी है। उनकी कृपा से संसार के प्राणियों को बुद्धि प्रदान करती है।
- स्कन्द पुराण में माँ सरस्वती के स्वरुप को कमल के आसन पर सुशोभित, जटायुक्त, माथ पर अर्धचंद्र को धारण करती है। इन्हे नील ग्रीवा और तीन नेत्रों से युक्त बताया गया है।
- माँ सरस्वती का वाहन हंस है, जिसके कारण इन्हे हंसवाहिनी कहा जाता है।
।। श्री सरस्वती चालीसा।।
॥ दोहा ॥
जनक जननि पद्मरज,
निज मस्तक पर धरि ।
बन्दौं मातु सरस्वती,
बुद्धि बल दे दातारि ॥
पूर्ण जगत में व्याप्त तव,
महिमा अमित अनंतु।
दुष्जनों के पाप को,
मातु तु ही अब हन्तु ॥
॥ चालीसा ॥
जय श्री सकल बुद्धि बलरासी । जय सर्वज्ञ अमर अविनाशी ॥
जय जय जय वीणाकर धारी । करती सदा सुहंस सवारी ॥
रूप चतुर्भुज धारी माता । सकल विश्व अन्दर विख्याता ॥4
जग में पाप बुद्धि जब होती । तब ही धर्म की फीकी ज्योति ॥
तब ही मातु का निज अवतारी । पाप हीन करती महतारी ॥
वाल्मीकिजी थे हत्यारा । तव प्रसाद जानै संसारा ॥
रामचरित जो रचे बनाई । आदि कवि की पदवी पाई ॥8
कालिदास जो भये विख्याता । तेरी कृपा दृष्टि से माता ॥
तुलसी सूर आदि विद्वाना । भये और जो ज्ञानी नाना ॥
तिन्ह न और रहेउ अवलम्बा । केव कृपा आपकी अम्बा ॥
करहु कृपा सोइ मातु भवानी । दुखित दीन निज दासहि जानी ॥12
पुत्र करहिं अपराध बहूता । तेहि न धरई चित माता ॥
राखु लाज जननि अब मेरी । विनय करउं भांति बहु तेरी ॥
मैं अनाथ तेरी अवलंबा । कृपा करउ जय जय जगदंबा ॥
मधुकैटभ जो अति बलवाना । बाहुयुद्ध विष्णु से ठाना ॥16
समर हजार पाँच में घोरा । फिर भी मुख उनसे नहीं मोरा ॥
मातु सहाय कीन्ह तेहि काला । बुद्धि विपरीत भई खलहाला ॥
तेहि ते मृत्यु भई खल केरी । पुरवहु मातु मनोरथ मेरी ॥
चंड मुण्ड जो थे विख्याता । क्षण महु संहारे उन माता ॥20
रक्त बीज से समरथ पापी । सुरमुनि हदय धरा सब काँपी ॥
काटेउ सिर जिमि कदली खम्बा । बारबार बिन वउं जगदंबा ॥
जगप्रसिद्ध जो शुंभनिशुंभा । क्षण में बाँधे ताहि तू अम्बा ॥
भरतमातु बुद्धि फेरेऊ जाई । रामचन्द्र बनवास कराई ॥24
एहिविधि रावण वध तू कीन्हा । सुर नरमुनि सबको सुख दीन्हा ॥
को समरथ तव यश गुन गाना । निगम अनादि अनंत बखाना ॥
विष्णु रुद्र जस कहिन मारी ।
जिनकी हो तुम रक्षाकारी ॥
रक्त दन्तिका और शताक्षी । नाम अपार है दानव भक्षी ॥28
दुर्गम काज धरा पर कीन्हा । दुर्गा नाम सकल जग लीन्हा ॥
दुर्ग आदि हरनी तू माता । कृपा करहु जब जब सुखदाता ॥
नृप कोपित को मारन चाहे । कानन में घेरे मृग नाहे ॥
सागर मध्य पोत के भंजे । अति तूफान नहिं कोऊ संगे ॥32
भूत प्रेत बाधा या दुःख में । हो दरिद्र अथवा संकट में ॥
नाम जपे मंगल सब होई । संशय इसमें करई न कोई ॥
पुत्रहीन जो आतुर भाई । सबै छांड़ि पूजें एहि भाई ॥
करै पाठ नित यह चालीसा । होय पुत्र सुन्दर गुण ईशा ॥36
धूपादिक नैवेद्य चढ़ावै । संकट रहित अवश्य हो जावै ॥
भक्ति मातु की करैं हमेशा । निकट न आवै ताहि कलेशा ॥
बंदी पाठ करें सत बारा । बंदी पाश दूर हो सारा ॥
रामसागर बाँधि हेतु भवानी । कीजै कृपा दास निज जानी ॥40
॥दोहा॥
मातु सूर्य कान्ति तव,
अन्धकार मम रूप ।
डूबन से रक्षा करहु,
परूँ न मैं भव कूप ॥
बलबुद्धि विद्या देहु मोहि,
सुनहु सरस्वती मातु ।
राम सागर अधम को,
आश्रय तू ही देदातु ॥
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