भगवान् भोलेनाथ |
भगवान् श्री शिवजी को संहार का देवता माना जाता है। शंकरजी सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए जाने जाते शिवजी सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति है। त्रिदेवों में भगवान् शिव को संहार का देवता माना गया है।
।। शिवजी की स्तुति।।
कर्पूरगौरं करुणावतारं संसारसारं भुजगेंद्राहारम।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानी सहितम नमामि।।
अर्थ : - कर्पूरगौरं -- जिनका कर्पूर के समान गौर वर्ण है।
करुणावतारं -- जो साक्षात करुणा मय है।
संसारसारं -- जो समस्त सृष्टि के सार है।
सदा बसन्तं हृदयारबिन्दे भवं भवानी सहितम नमामि --
मै उन शिव व पार्वती से प्रार्थना करता हूँ कि वो मेरे ह्रदय में सदा निवास करें। मै आपको नमन करता हूँ।
आरती शिवजी की [१ ]
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा,ब्रह्मा, विष्णु , सदाशिव, अर्द्धांगी धारा ,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
एकानन चतुरानन पंचानन राजे,हंसासन गरूडासन वृषवाहन साजे,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
दो भुज चार चतुभुुज दसभुज अशत सोहे,विगुण रू प शनरखते विभुवन जन मोहे ,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
अक्षमाला वनमाला मुण्डमाला धारी ,विपुरारी कंसारी कर माला धारी,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
श्वेतातांबर पीतांबर बाघंबर अंगे ,सनकाददक गरुणाददक भूताददक संगे ,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूलधारी,सुखकारी दुखहारी जगपालन कारी,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
ब्रम्हा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका ,प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका ,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
लक्ष्मी व सावविी पावुती संगा ,पावुती अर्धांगी, शिवलहरी गंगा,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
पर्वत सोहैं पार्वती ,शंकर कैलासा,भांग धतूर का भोजन, भस्मी में वासा,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
जटा में गंग बहत है,गल मुण्डन माला,शेष नाग लीपटावत,ओढ़त मृगछाला ,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
काशी में विराजे विश्वनाथ,नंदी ब्रह्मचारी,नित उठ दर्शन पावत,महिमाअति भारी
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
विगुणस्वामी जी की आरशत जो कोई नर गावे,कहत शिवानंद स्वामी सुख संपत्ति पावे ,
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा।।
शीश गंग अर्धंग पार्वती आरती [ २ ]
शीश गंग अर्धंग पार्वती, सदा विराजत कैलासी, नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुर सुखरासी ||
शीतल मन्द सुगन्ध पवन, बह बैठे हैं शिव अविनाशी, करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर, राग रागिनी मधुरा सी ||
यक्ष रक्ष भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी, कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा सी ||
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु, लाग रहे हैं लक्षासी,
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत, करत दुग्ध की वर्षा सी ||
सूर्यकांत सम पर्वत शोभित, चंद्रकांत सम हिमराशी, नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित, सेवत सदा प्रकृति दासी ||
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी, ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन, कछु शिव हमकूँ फरमासी ||
ऋद्धि-सिद्धि के दाता शंकर, नित सत् चित् आनंद राशी, जिनके सुमिरत ही कट जाती, कठिन काल यमकी फांसी ||
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर, प्रेम सहित जो नर गासी, दूर होय विपदा उस नर की, जन्म-जन्म शिवपद पासी ||
कैलासी काशी के वासी, अविनाशी मेरी सुध लीजो, सेवक जान सदा चरनन को, अपनो जान कृपा कीजो ||
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय, अवगुण मेरे सब ढकियो, सब अपराध क्षमाकर शंकर, किंकर को विनती सुनियो ||
शीश गंग अर्धंग पार्वती, सदा विराजत कैलासी, नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुर सुखरासी ||
।।ॐ नमो शिवाय।।
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